Jharkhand left behind not only other 27 states of India but even Uttrakhand and Chattisgarh. Range of problems but राजनीति का सबसे बुरा हाल है। Are'nt you 'the people' responsible? Come forward, join hands...जागो और जगाओ। इस ब्लॉग पर लिखना चाहें तो स्वागत है, मेल करें jago-jharkhand@gmail.com
Wednesday, August 25, 2010
बाबूलाल की कछुवा चाल
झारखंड की सियासत बिडंबनाओं की गंगोत्री साबित हो रही है। बीजेपी और जेएमएम के लोग अब भी सरकार गठन के शिगूफे छोड़ने से बाज नहीं आते। अजीब से हालत में फंसे राज्य का राजनीतिक वर्ग अजीब हरकतें करने का आदी हो चुका है। ऐसे में लोग सामान्य राजनीतिक व्यवहार से ज्यादा कुछ नहीं ढूंढ रहे हैं। यहां किसी को आदर्श नेतृत्व की तलाश नहीं है। यहां सबको तलाश है तो बस एक अदद नेता की जो अहमक नहीं है। कोई तो जिसमें थोड़ा सब्र हो, जो कल की सोचे।
दो हजार पांच के विधानसभा चुनावों के बाद से झारखंड में राजनीति से जुड़े लगभग तमाम लोग तात्कालिक लोभ की प्रेरणा से जी रहे हैं। नतीजा, राजनीतिक स्थिरता एक सपना बनकर रह गई है। लेकिन ऐसे में भी एक शख्स है, जो कछुवा गति से झारखंड की सत्ता की तरफ बढ़ रहा है। बाबूलाल मरांडी ने बीजेपी छोड़ी तो उसके पहले संगठन की दरारों को चौड़ा कर दिया। अपनी पार्टी बनाई तो उसे विक्षुब्धों की धर्मशाला बनने दिया। मगर पिछले चुनावों में दस सीटें हासिल की तो साबित हो गया कि छोटे से अर्से में ही दमदार संगठन खड़ा किया जा चुका था।
कायदे से देखा जाए तो बाबूलाल की जेवीएम प्रजातांत्रिक - राजनीति के भूत-बेतालों की बारात से कम नहीं है। इसमें समाज के तमाम सफेदपोश मौजूद हैं, राजनीतिक झंडा थामककर हुड़दंग मचाने वाले भी हैं और आपराधिक मामलों में सराबोर नवधनाढ्य नौजवान भी। मगर पार्टी को थिंक टैंक चलाता है। झारखंड की राजनीतिक धूप में दशकों तक बाल सफेद कर चुके लोग मरांडी की कोर टीम में हैं। सबसे बड़ी ताकत ये है कि फंड की समस्या कभी आड़े नहीं आई।
राष्ट्रपति शासन लगने के बाद जैसे-जैसे ये साफ होता गया कि कांग्रेस अप्रत्यक्ष शासन के दौर को लम्बा खींचने के मूड में है, कांग्रेस के प्रति बाबूलाल के सुर तीखे होते गए। अब तो उन्होंने एक तरह से ऐलान कर दिया है कि चुनाव के वक्त कांग्रेस या तो बराबरी का समझौता करने के लिए तैयार रहे या फिर उन्हें भूल जाए। अपनी करतूतों की वजह से बीजेपी और जेएमएम के नेता संगठन और कार्यकर्ताओं से दूर हो चुके हैं। कांग्रेस में दिल्ली की मर्जी बिना पत्ता भी नहीं हिलता और दिल्ली के पास देश भर की माथापच्ची है। ऐसे हालात में झारखंड में जो सियासी सन्नाटा नजर आता है, बाबूलाल उसका भी लाभ उठा रहे हैं।
प्रदेश स्तर पर नेताओं की चर्चा होती है तो उन तमाम लोगों के नाम सबसे पहले लिए जाते हैं जो कभी मुख्यमंत्री रहे हैं या फिर उनकी, जिनमें मुख्यमंत्री बनने का माद्दा दिखता हो। झारखंड में लोग अंगुली पर नाम जोड़कर लोग निराश हो जाते हैं। शायद इसीलिए ईवीएम पर पड़ने वाली अंगुलियां यहां वहां भटकती रहती हैं।
क्या इस बार बाबूलाल मरांडी चमत्कार करने का सपना देख रहे हैं ?
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पिछले चुनाव से ये साफ़ हो गया था की लोगों के अन्दर बाबूलाल के प्रति कितनी चाहत है. लेकिन बाबूलाल धीरे-धीरे अब फिर से एक बार सबके दिलों से निकलते जा रहे हैं.
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