Sunday, May 30, 2010

अनाथ नक्सलवाद का अपहरण


भारत में नक्सवाद का अपहरण हो चुका है...आज नहीं वर्षों पहले हो चुका है....इसके जन्मदाताओं ने उसी वक्त इसे अनाथ भी घोषित कर दिया था....चारू,कानू,जंगल जैसे इसके जन्मदाता अब उपर जा चुके हैं....

ये मनमोहन देसाई की फिल्म नहीं दिखा रहा हूं मैं। सच बता रहा हूं।
नक्सलवाद, जिसे आप चाहें तो माओवाद भी कह सकते हैं, उसको बचपन में ही अगवा कर लिया गया था। उसके जो बाप थे भारत में,वो व्यवस्था के खिलाफ खड़े हुए थे। नक्सलवाद को उन्होंने इसलिए पैदा किया था कि बड़ा होकर वो भारत की व्यवस्था बदल देगा। कृषि पर आधारित समाज में मौजूद सामंतवादी व्यवस्था को उल्टा लटका देगा। नक्सलवाद की विस्तृत अवधारणा की तरफ ध्यान खींचेने और शल्य चिकित्सा की तात्कालिक ज़रूरतों के लिए हथियार का इस्तेमाल भी हुआ था। खून बहाया गया था ताकि लाल रंग लोगों के जेहन में बैठ जाए। लेकिन व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई उन लोगों के खिलाफ भी तो थी, जो इस व्यवस्था की बेहद ताकतवर देन थे। अंग्रेजों से सीखे हुए लोकतंत्र के गुर अंग्रेजों के खिलाफ इस्तेमाल करके इस देश ने जो सीखा था, उसमें सशस्त्र क्रांति के लिए इतनी गुंजाइश भी नहीं थी शायद। नतीजा नक्सलवाद के जनक बहुत जल्दी पस्त हो गए। उसके बाद नक्सलवाद लावारिश हो गया। उसके बाद उसका अपहरण हो गया।

तब से लेकर आज तक नक्सलवाद, या चाहें तो आप उसे माओवाद कह सकते हैं, भटक रहा है। भारत के पूर्वी हिस्सों में आंध्र से लेकर नेपाल तक उसे भटकते हुए देखा गया है। उसपर अपहर्ताओं का कब्जा है। उसके अपहर्ता कपड़े से मुंह ढंककर रहते हैं। अपहर्ताओं के कई गुट हैं। एक साथ कई-कई गिरोह दावा करते हैं कि नक्सलवाद उनके पास है। वो किस्तों में फिरौती वसूलते हैं। कभी सरकार से फिरौती वसूलते हैं,कभी ठेकेदार से, कभी गांव के लोगों से, कभी शहर के लोगों से।

अब तो लोग-बाग ये भी कहने लगे हैं कि दरअसल अब नक्सलवाद है ही नहीं। वो मर चुका है। ये अपहर्ता लोग झूठ-मूठ अभिनय करते हैं कि नक्सलवाद उनके पास है,जिन्दा है। लेकिन सच तो ये है कि नक्सलवाद है। मैंने उसे अपनी आंखों से देखा है। मैंने उसे झारखंड के जंगली-आदिवासियों की आंखों में देखा है। मैंने उसे हवालात की सलाखों से सिर टकराते हुए देखा है। मैंने उसे भुंइनी की साड़ी में छिपते हुए देखा है। लेकिन उसके पास हथियार नहीं है। उसके पास पम्पलेट भी नहीं है। वो लाल झंडे के पास खड़ा हो जाता है, क्योंकि उसे इसके अलावा दूसरा रंग दिखता ही नहीं। कलर ब्लाइंडनेस। ये बात अपहर्ताओं को पता है। इसलिए वो लाल झंडे गाड़ देते हैं और लाल रंग फैला देते हैं। ताकि नक्सलवाद उनके पास चला आए और वो फिरौतियां वसूल सकें। अपनी बात मनवा सकें।

पहले ये लोग अलग-अलग झंडे गाड़ते थे, अलग-अलग लाल रंग फैलाते थे। बाद में इन लोगों ने एका बना लिया और ज्यादा लाल रंग फैलाने लगे। लाल रंग फैलाओ, नक्सलवाद को अपने पास बुलाओ और फिरौती वसूलो। फिरौती में रुपया लेते हैं, फिरौती में सलामी लेते हैं, फिरौती में वोट लेते हैं, फिरौती में हथियार लेते हैं, फिरौती में लाज लेते हैं, और भी बहुत कुछ लेते हैं। ये लोग धंधा भी करते हैं। नेता,ठेकेदार,मंत्री,इंजीनियर,ऑफिसर, किसान, शैतान,नादान हर तरह के ग्राहक हैं इनके पास। मैंने सुना है कि नक्सलवाद के अपहर्ताओं के पास बहुत पैसा है, बहुत हथियार है। महानगरों में इनकी कोठियां हैं, इनके बच्चे विदेशों में पढ़ते हैं।

आप जाइये ना, लावालौंग जाइये। सब पता लग जाएगा। मगर वहां जाकर कुछ पूछना मत। चुपचाप चले आना। नक्सलवाद को देखना और चले आना। नक्सलवाद को छुड़ाने की कोशिश मत करना, नहीं तो मारे जाओगे। वो लोग पैनी नजर रखते हैं। जिसपर उन्हें ये शक हो जाएगा कि वो नक्सलवाद को छुड़ाने की सोचता है वो उसे मार डालेंगे। जिनपर उन्हें ये शक हो जाए कि वो नक्सलवाद को मारने की सोचता है, वो उसे भी मार डालेंगे। कितने लोग मारे गए, आपको पता नहीं है।

दरअसल अब नक्सलवाद समाजवाद बनना चाहता है। अपने बाप-दादाओं की तरह सभाओं में बैठना चहाता है, ताकि बूढ़ापे में वो पूंजीवाद बन सके और चैन से अपोलो अस्पताल में मर सके। लेकिन उसके अपहर्ता उसे बढ़ने नहीं देंगे, वो उसे ठोक-ठोककर छोटा बनाए रखेंगे। इसमें उनके ग्राहक उनकी मदद कर रहे हैं। बस इससे ज्यादा नहीं बताऊंगा। जय हिन्द।

Friday, May 28, 2010

ऊंचाई पर पहुंचना आसान टिकना मुश्किल


मेरे एक मित्र(पंकज भूषण पाठक) ने फेसबुक पर लिखा है..."झारखण्ड में दिशोम गुरु के नाम से चर्चित शिबू सोरेन जिन्हें आदिवासी समाज में भगवान के रूप पूजा जाता है आज सत्ता-लोलुपता के पर्याय बने हुए है. किस्मत ने उन्हें तीन बार सीएम की कुर्सी पर बिठाया लेकिन सत्ता सुख़ कभी भोगने नही दिया.मौजूदा हालात में तमाम फजीहत और असम्भावना के बावजूद वो हैं की कुर्सी छोड़ने को तैयार नही. जनता की नजरो में आज वो एक मजाक बनते जा रहे हैं...कौन समझाए इन्हें?"


पंकज को अगर अब भी लगता है कि शिबू सोरेन को समझने-समझाने की ज़रूरत है तो इसका मतलब साफ है - घोर विकल्पहीनता।

शिबू सोरेन ने लम्बा राजनीतिक सफर तय किया है। ये सच है कि आदिवासी समाज में उन्हें जितनी मान-प्रतिष्ठा मिली वो आजाद भारत में शायद किसी और को नहीं मिली। जाहिर है इसकी जायज वजह भी रही होगी। लेकिन इस मान प्रतिष्ठा के बल पर ऊंचाइयां छूने वाले इस राजनेता ने सिर्फ और सिर्फ स्वार्थ की खातिर बार-बार वो सब कुछ दाव पर लगा दिया जो वक्त ने इसे दिया था।

पिता की हत्या ने शिव चरण मांझी को ऐसी राह पर निकाल दिया कि वो एक क्रांतिकारी बन गया। वो शिबू सोरेन हो गया, गुरूजी कहलाने लगा। इस प्रक्रिया में जंगलों-पहाड़ों की खाक छान रहे शिबू सोरेन में सिर्फ आदिवासियों ने नहीं बल्कि उस वक्त के तमाम बुद्धिजीवियों ने भी बड़ी संभावनाएं देखी थीं। गरीबी,जहालत,शराब की लत और महाजनों के शोषण से त्रस्त आदिवासियों ने शिबू सोरेन को मसीहा मान लिया। समय और इतिहास के दुष्चक्र में फंसा हुआ समाज हमेशा किसी चमत्कार की उम्मीद में रहता है। ऐसे में अपने बीच का कोई आदमी क्रांति की बात भी करे तो देवता लगता है। मगर पीड़ा को समझना और पीड़ा को धारण करना एक बात होती है, उस पीड़ा से मुक्ति का रास्ता खोजना वो भी व्यवस्था में जगह बनाकर - इसके लिए जो विजन चाहिए, शिबू सोरेन उसके आस-पास भी नहीं थे। इसलिए उन्होंने अलग राज्य के आंदोलन में खुद को समाहित कर लिया।

दूसरों की पीड़ा इक्टठा करने के बाद अगर उसे सही रास्ता दिखाने की कुवत शिबू सोरेन में होती तो राज्य अलग होने से पहले ही वो अपने मुंह पर भ्रष्टाचार की कालिख नहीं मलते। भाजपा बीच रास्ते झारखंड की अवधारणा को हाइजैक नहीं कर पाती। याद रहे कि राज्य अलग होने से पूर्व के वर्षों में भाजपा का वनांचल अभियान झारखंड आंदोलन से कहीं ज्यादा प्रभावी था। छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड की उभरती आकांक्षाओं को भी भाजपा ने अवशोषित करने की कोशिश की। और अलग राज्य भी उस वक्त की राजनीतिक परिस्थितयों और केन्द्र की भाजपा सरकार की सुविधा के हिसाब से बना था। राज्य बनने के बाद जो किस्सा हुआ उसका लब्वोलुआव तो पंकज की निराशा में साफ है।

लेकिन तमाम विश्लेषण के बाद भी गुरूजी की नासमझी का सवाल जस का तस है। गुरूजी को नासमझ इसलिए कहा जाता है क्योंकि उनकी होशियारी का तर्क समझ में नहीं आता। दरअसल इनकी होशियारी इसलिए समझ नहीं आती क्योंकि जितने बड़े पैमाने पर इन्हें मान-प्रतिष्ठा और जनसमर्थन हासिल हुआ, उतने बड़े पैमाने इन्होंने ना खुद कुछ हासिल किया, ना अपनी जनता को कुछ दिया। ये उपेक्षा का दंश झेल रहे लोगों के विश्वास का न्यासी तो हुए, लेकिन लोकतंत्र के इस सबसे ताकतवर हथियार का इस्तेमाल इन्हें कभी समझ नहीं आया। रणनीतिक सोच का शिबू सोरेन से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है।

ऐसे में ये सवाल भी लाजिमी है कि जिन उम्मीदों ने शिव चरण मांझी को गुरू जी का दर्जा दिया, उनका क्या ?
लोकतंत्र में हाशिए पर धकेल दिए गए वर्गों के पास इसके सिवा और चारा भी क्या है कि अपने बीच से नायक ढुंढे और लायक-नालायक जो भी सामने दिखे उसके साथ लामबंद हो जाएं। ऐसा इसलिए है कि बाहर के समाज के प्रति उनका विश्वास बुरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। लायक-नालायक देखे बिना जब नायक चुने जाएंगे तो जाहिर है क्रांति नहीं हो सकती। और क्रांति अगर हो भी जाए तो बात बनती नहीं दिखती। लेकिन इसका कोई हासिल नहीं ऐसी बात नहीं। वक्त का दरिया रूकता नहीं और अपने साथ बहुत कुछ बहाकर ले भी जाता है। ऐसे नायकों का छलावा भी बहकर निकल जाता है और वक्त की रोशनी से दूर बैठे समाज तक ये संदेश पहुंचा देता है कि दुनिया चमत्कार से नहीं चलती।

Wednesday, May 26, 2010

बाबू जी धीरे चलना


प्यार में संभलना थोड़ा मुश्किल होता है। और फिर ये तो कुर्सी का प्यार है। उस कुर्सी का जो साल 2003 से रुठी हुई है। इसलिए बाबूलाल मरांडी जी का मन मचल जाए तो हैरानी नहीं। इसलिए ज़रूरी है कि वो कुछ बातों का ध्यान रखें। ध्यान रखें की दिसंबर 2009 में उन्होंने बर्दाश्त कर लिया था। उस त्याग की भावना, या कहें मजबूरी की वजह से उनकी शख्सियत को जो उंचाई या जो वजन मिला था, उसे कहीं खो ना दें मरांडी।

आदिवासी होना, संथाल होना, सबसे बड़े गठबंधन के नेतृत्व मिलने की संभावना, केन्द्र के कांग्रेसियों का वरदहस्त- ये तमाम बातें बहकाएंगी। लेकिन फिर भी बाबू जी को संभलने की ज़रूरत है। क्योंकि लालची लोगों की ब्यूहरचना है। वो चाहेंगे कि कोई ऐसा मिल जाए तो उनकी नैया का खेवनहार बन जाए। वो अपनी तरफ खीचेंगे। औऱ बाबू जी कुर्सी के मोह में कुर्सी की असली मालिक जनता की नजरों में उठकर गिर जाएंगे।
झारखंड में सिर्फ एक अदद सरकार की ज़रूरत नही है। झारखंड में एक ऐसी सरकार की ज़रूरत है जिसे पर्याप्त जनादेश हासिल हो और जिसको इस बात का एहसास हो कि वो जनता की मर्जी से शासन कर रही है ना कि सत्ता के मैनेजरों और दलालों की मेहरबानी से। इसिलए ज़रूरी है कि वरमाला पहनने से पहले बाबू जी को ये देख लेना चाहिए कि माला का एक एक फूल उनके नाम का है, कहीं से चुराया हुआ नहीं।
वैसे बाबू जी कच्चे खिलाड़ी नहीं। बड़ी संभावना है कि उन्हें भटकाया जाएगा लेकिन बहुत कम संभावना है कि वो भटकेंगे। जिस वक्त जोड़-घटाव चल रहा था वो रांची में अधिवेशन कर रहे थे। अपने कार्यकर्ताओं को समझा रहे थे कि लम्बे समय की राजनीति ही श्रेयष्कर है।
कमाल है झारखंड से बाहर के लोग झारखंड को अपने इशारों पर नचाने का सपना देखते हैं। देखे भी क्यों नहीं, पहले वो ऐसा कर भी चुके हैं। लेकिन जो हो गया सो हो गया। अब ऐसा नहीं होना चाहिए। कुछ इने-गिने लोग जिन्हें जनता अपने राज्य में हैसियत गिनवाने लायक मानती है, उन्हें ये देखना होगा कि ऐसा ना हो। अरे बाहर वाले भले ना जानते हों आप तो जानते हैं कि इस मिट्टी का रंग कैसा है। काला हीरा पैदा करने वाली धरती अब कैसे आग उगल रही है ये आपसे छिपा हुआ तो है नहीं।

Friday, May 21, 2010

चुनाव चुनाव चुनाव



झारखंड में विकल्पों की तलाश बेमानी है। किसी नेता में इतना माद्दा नहीं है कि वो खंडित जनादेश के बावजूद अपने लिए विधायकों से सम्मानजनक शर्तों पर समर्थन जुटा सके। व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं से लबरेज हर विधायक अपनी गोटी लाल करना चाहता है। मंत्रीपद से कम का सपना देखना विधायक अपनी हेठी समझते हैं।
मुझे व्यक्तिगत रूप से कम से कम तीन निर्दलीय विधायकों के बारे में जानकारी है कि जब जेएमएम-बीजेपी की सरकार बन रही थी, वो अपने मंत्रीपद के लिए लॉबिंग कर रहे थे। सोचिए उस वक्त निर्दलीयों की कोई ज़रूरत नहीं थी,फिर भी। जेएमएम में गुरूजी सिर्फ एक प्रतीक भर रह गए हैं। उनके तमाम चेले-चपाटे अब उनके जीते-जी उनके नाम का ज्यादा से ज्यादा फायदा उठा लेना चाहते हैं। हेमन्त सोरेन भी इसी राह पर हैं।

कांग्रेस-जेवीएम को अगर सरकार बनानी थी तो चुनाव के ठीक बाद बना सकते थे। ये अकेला सबसे बड़ा चुनाव पूर्व गठबंधन था। जनता ने जेवीएम औऱ कांग्रेस दोनों को नई ताकत दी थी। लेकिन उस वक्त उन्होंने कदम आगे नहीं बढ़ाया। एक तरह से बीजेपी-जेएमएम को वॉकओवर दे दिया। दो बड़े गठबंधनों के अलावा किसी में इतनी ताकत नहीं कि सरकार बना सकें।
ऐसे में सवाल उठता है कि वहां हो क्या रहा है ? गुरूजी की “कभी हां कभी ना’ आखिर कहां जाकर खत्म होगी। अगर अर्जुन मुंडा की सरकार बन भी गई तो क्या हासिल कर पाएगी ? कांग्रेस-जेवीएम की क्या भूमिका है? दोनों गठबंधनों के अलावा जो विधायक हैं वो क्या ऐंवे ही घुस आए हैं?
साफ है परिस्थितियां एक स्थाई और जनहित की सरकार के खिलाफ हैं। ऐसे में चुनाव ही विकल्प है। जनता को एक बार एहसास कराने की ज़रूरत है कि उसकी उपेक्षा उसको बर्बादी की तरफ लेकर जा रही है। मध्यावधि चुनाव होने चाहिए। जनता को पता लगना चाहिए कि इक्यासी सीटों वाली विधानसभा में बहुमत तय करने की ज़िम्मेदारी उसी की है। राजनीतिक दलों को भी चाहिए कि गठबंधन की शक्ल में विकल्प जनता के आगे करें।
दिक्कत है तो बस इतनी कि जनता के वोट को अपने बाप की मिल्कियत समझने वाले विधायकों को अगर रोके तो कौन ? राजनीतिक दलों को बहुदलीय लोकतंत्र में खंडित जनादेश का सम्मान करना सिखाए तो कौन ? चुनाव के लिए पहल करे तो कौन ? मेरे खयाल से गैरराजनीतिक लोगों को इसमें आगे आना चाहिए। मीडियो को अपनी भूमिका निभानी चाहिए। जनमत को सामने लाना मीडिया का दायित्व है। जनमत सामने आना चाहिए। अगर जनता चाहती है तो एक बार फिर से चुनाव होना चाहिए।

Wednesday, May 19, 2010

सिर्फ मैनेजर या लीडर भी


अर्जुन मुंडा एक बार फिर से झारखंड की कुर्सी संभालने जा रहे हैं। बेमेल शादी में तलाक-तलाक का शोर मचाने के बाद फिलहाल समझौते का जो फार्मूला तय हुआ है उसके मुताबिक 28 महीनों के लिए उन्हें ताज मिलेगा। 28 महीनों में वो क्या गुल खिलाते हैं इसपर सबकी निगाहें होंगी। लेकिन मेरी निगाहें इस बात पर होंगी कि कौन-कौन उन्हें बीच रास्ते में गिराने की फिराक मे लगे हैं। सबसे पहले तो जेएमएम के अठारह में से कम से कम चार विधायक ऐसे हैं, जिन्हें एक बार फिर से कड़वा घूंट पीना होगा। साइमन मरांडी का मुखौटा पहनकर बैठे इन विधायकों की संख्या चार से ज्यादा भी हो सकती है। दूसरी तरफ से कांग्रेस खासकर प्रदीप बालमुचू इन लोगों को सह दे रहे होंगे। बाबूलाल मरांडी सरकार के हर कदम पर विधवा विलाप करेंगे। और सबसे बड़ी बात खुद भाजपा के अंदर भी अर्जुन मुंडा की टांग खींचने वालों की कोई कमी नहीं। इस बार अर्जुन मुंडा ने अपने विरोधियों को पटखनी दे दी तो वो सिर्फ इसलिए कि वर्तमान हालात में रांची-दिल्ली के मैनेजमेंट में उनसे ज्यादा कुशल और अनुभवी दूसरा कोई नहीं है। लेकिन चाहे हालात कैसे भी हों, मुंडा सरीखे नेता से जनता डिलीवरी की आशा रखेगी।

कुल मिलाकर अर्जुन मुंडा के सामने ये साबित करने की बड़ी चुनौती होगी कि क्या वे सिर्फ एक पॉलीटिकल मैनेजर हैं या फिर एक मंजे हुए राजनेता भी।
झारखंड में जानकार कहलाने वाले कहते हैं कि पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद से मुंडा ने लागातार इम्प्रूव किया है। उनका अध्ययन उनकी बातों में दिखता है, उनका अनुभव उनके व्यवहार में दिखता है, उनकी जीवनशैली आश्वस्त व्यक्तित्व का परिचय देती है। ब्यूरोक्रेट्स भी मानते हैं कि सरकारी कामकाज की जितनी समझ मुंडा को है शायद झारखंड के किसी दूसरे राजनेता को नहीं है। झारखंड से बाहर की एलिट सोसायटी में भी मुंडा का सबसे ज्यादा दखल है। लेकिन सामान्य लोगों की तरह सत्ता का दर्प मुंडा की कमज़ोरी है। झारखंड में उनकी भी एक चौकड़ी है - जो उनकी बदनामी की वजह बन सकती है। झारखंड में दलालों की पैठ हद से ज्यादा है। ब्यूरोक्रेसी नेताओं के हाथ से बाहर हो चुकी है। और रांची से लेकर दिल्ली तक सभी ने इस राज्य को बिना पहरेदार का खुला खजाना मान लिया है।
ऐसे में बैशाखी पर टिकी सरकार की अगुवाई मुंडा के लिए गलत निर्णय भी साबित हो सकती है। उन्हें झारखंड की राजनीति में लम्बी रेस का तगड़ा घोड़ा माना जाता है। सत्ता उनके लिए ऊर्जा भी साबित हो सकती है और बोझ भी। लेकिन अगर मुंडा अपने गठबंधन के साथियों और पार्टी में मौजूद जलनेवालों से खुद को बचा पाए तो 28 महीने का कार्यकाल पूरा कर लेंगे। और अगर वो जनता की उम्मीदों पर बीस फीसदी भी खरा उतरे तो 28 महीने के बाद उन्हें हटा पाना भी मुश्किल होगा। मुंडा को साबित करना है - वो सिर्फ मैनेजर नहीं लीडर भी हैं।

Monday, May 17, 2010

ज़रूरी है झारखंड में चुनाव



नेताओं(राजनेताओं) के व्यक्तिगत स्वार्थ को हटाकर देखा जाए तो पिछले चुनाव के बाद से लेकर अब तक न तो झारखंड की जनता ने कुछ हासिल किया ना ही राजनीतिक बिरादरी ने, और आगे भी कुछ हासिल होगा, ऐसा लगता नहीं है। उल्टा राजनीतिक बिरादरी अपनी साख खोती जा रही है। राज्य एक खतरनाक राजनीतिक शून्य की तरफ बढ़ रहा है। ऐसे में जनता की ज़रूरत भी है और जिम्मेदारी भी कि वो बीच बचाव करे। उसका एकमात्र ज़रिया है चुनाव – झारखंड में चुनाव ज़रूरी है।
हमारे बहुदलीय संसदीय लोकतंत्र में सामान्य परिस्थितियों में पांच साल पर चुनाव का प्रावधान है। लेकिन परिस्थितियां सामान्य नहीं हों तो मध्यावधि चुनाव का भी प्रावधान है। झारखंड के बारे में ये स्वीकार करने में हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए कि परिस्थितियां सामान्य नहीं हैं। जिन्हें नेता होने का ज़रा भी गुमान है, उन्हें चुनाव से डरने की नहीं आंख मिलाने की ज़रूरत है। झारखंड की जनता अगर चुनाव से डरती तो बार-बार खंडित जनादेश नहीं देती। खजाने का जितना पैसा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ता दिखाई दे रहा है, चुनाव पर उससे ज्यादा तो खर्च नहीं होगा। इसलिए चुनाव के बोझ का तर्क भी बेमानी है। और सबसे बड़ी बात ये कि वर्तमान राजनीतिक हालात में चुनाव अगर समस्या का समाधान नहीं है तो इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है।
दरअसल समस्या ये नहीं कि झारखंड में सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक धड़ों के बीच गलाकाट प्रतियोगिता चल रही है, समस्या ये है कि इस प्रतियोगिता में आम जनता को मूकदर्शक मान लिया गया है। ऐसे में मध्यावधि चुनाव जनता को उसकी जिम्मेदारी का तगड़ा एहसास कराने में भी सक्षम होगा। मध्यावधि चुनाव लोगों को ये समझा पाएंगे कि उनके राज्य में भी परिस्थितियां सामान्य नहीं हैं। राजनीतिक दलों को भी असामान्य परिस्थितियों के प्रति सजगता दिखाने का मौका मिलेगा। चुनाव के बाद ऊल-जलूल गठबंधन करने से कहीं बेहतर होगा चुनाव से पहले ही सोच समझकर साझीदार खोज लेना। कांग्रेस-जेवीएम गठबंधन की सफलता इस बात का प्रमाण है कि जनता स्थायी विकल्पों की तलाश में है।
चुनाव की ज़रूरत सिर्फ जनता को नहीं राजनीतिक दलों को भी है। उन्हें भी नई राह खोजने की ज़रूरत है। इसमें कोई दो राय नहीं कि झारखंड के अंदर भी राजनैतिक,भौगोलिक औऱ सामाजिक विभाजन है। खंडित जनादेश की ये सबसे बड़ी वजह है। संथाल परगना और पलामू के हालत अलग हैं, कोल्हान की परिस्थियां अलग और छोटानागपुर की अलग। आदिवासियों की समस्याएं अलग हैं, गैर आदिवासी मूलवासियों की अलग और बाहर से आकर बसे झारखंडियों की अलग। हिन्दूवादी, वामपंथी, समाजवादी, सांस्कृतिक जैसी अलग-अलग विचारधाराएं एक-दूसरे से संघर्ष पर उतारू हैं। लेकिन झारखंड निर्माण के बाद का सबसे बड़ा सबक याद रखना चाहिए – विभाजन की भावना किसी समस्या को स्वीकार करने जैसी है, विभाजन अपने आप में कोई समाधान नहीं है। झारखंड की अगुवाई करने को बेताब नेताओं को एक मौका मिलना चाहिए कि वो अनेकता में एकता के सूत्र ढुंढें। तय करें की स्थायित्व हासिल करने के लिए उन्हें जोड़ना मंजूर है या स्वार्थ पूर्ति के लिए बिखंडन। चुनाव उनके लिए विकल्प खोलेगा।
व्यावहारिक तौर पर लम्बे समय की राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को चुनाव से दिक्कत नहीं होनी चाहिए। चुनाव से दिक्कत सिर्फ उन स्वार्थी तत्वों को है जो राजनीतिक अस्थायित्व का लाभ लेते हैं। इसमें सत्ता की दलाली करनेवाले वर्ग को सबसे ज्यादा दिक्कत है जिनकी रोजी-रोटी कन्फ्यूजन, बार्गेनिंग और ब्लैकमेलिंग से चलती है। दिक्कत उन विधायकों को भी है जिन्हें चुनाव जीतने के लिए करोड़ों खर्च करने पड़ते हैं।
दुनिया की तमाम शासन प्रणालियों की तरह लोकतंत्र में भी एक से एक जटिल समस्याएं आती रहती हैं। उम्मीद की जाती है जनता के प्रतिनिधि जनता की समस्याओं के साथ-साथ व्यवस्था में पैदा होनेवाली समस्याओं का भी समाधान करेंगे। भारत की बहुदलीय व्यवस्था में स्पष्ट जनादेश का अभाव भी ऐसी ही एक समस्या है। राष्ट्रीय स्तर पर करीब एक दशक तक अस्थायित्व का दौर देखने के बाद लगता है राजनीतिक लोगों ने खंडित जनादेश के साथ चलना सीख लिया है। फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि खंडित जनादेश पर टिकी शासन व्यवस्था में व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं के सिर उठाने की पूरी गुंजाइश है। दरअसल असली चुनौती स्थायीत्व और व्यवक्तिगत महत्वकांक्षाओं के बीच एक संतुलन कायम रखने की भी है।
तमाम ज़रूरत,तमाम जिम्मेदारी और तमाम चुनौतियों को स्वीकार करने का मतलब है – जनता को मौका देना, राजनीतिक विवेक की परीक्षा लेना। मान लीजिए और मांग कीजिए- झारखंड में चुनाव ज़रूरी है।